सकारात्मक सोच भाग 10:- प्रार्थना का सच
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सकारात्मक सोच भाग 10:-प्रार्थना का सच |
प्रार्थना का सच
सदियों से मनुष्य जाति ने जीवन जीने के दो तरीके अपनाए उनमें प्रार्थना को भी शामिल किया प्रार्थना इसलिए नहीं कि ईश्वर एक सर्वशक्तिमान सकता है इसकी विराटता भाई का कारण नहीं प्रेम और श्रद्धा का विषय है जो हम से श्रेष्ठ है वह हमें हमारी श्रद्धा का और जो सम्मान है वह हमारी प्रियता का अधिकारी है हमारी प्रार्थनाएं एक भावाकुल संवाद की तरह प्रकट हुई है हमारे यहां प्राचीन वैदिक विचार हैं जो ईश्वर के लिए गाई गई है प्रार्थनाएं मंत्र के रूप में भी रची गई है संस्कृत श्लोकों में आदि शंकराचार्य और साधकों संतो व कवियों के अनेक सतवन अत्यंत मनोहारी हैं गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं बैंकॉक या योगियों के हृदय में निवास नहीं करता मैं तो वहां होता हूं जहां भक्त मेरा गान करते हैं ।
संसार के सभी धर्मों सभी भाषाओं में प्रार्थना को महत्व मिला है हम इश्वर से कुछ ना कुछ चाहते हैं हम दुख से मुक्ति चाहते हैं सुख धन स्वास्थ्य और बाधाओं के प्रशमन की कामना करते हैं हमारी प्रार्थनाओं के मूल्य में भौतिक इच्छाएं प्रबल हो जाती हैं लेकिन सभी साधकों ने प्रार्थना के केंद्र में आता था और शरणागति को महत्व दिया है शरीर का रोमांच आंख के असूल गदगद वाणी और विषय कल्याण की भावना ही प्रार्थना के बीज भाव है
प्रार्थना सात्विक भाव के उदय से फलीभूत होती है हमारे यहां मंत्र जप में अजपा जप को बड़ा महत्व मिला है जब मोहन भाव से हो या और थोड़े ही ले या उच्चरित हो अपने और सब के कल्याण के लिए अपशब्द या मौन प्रार्थना रोम-रोम से की गई प्रार्थना सबसे मूल्यवान है|
मुझे उम्मीद है कि आपको यह सकारात्मक लेख
आने के लिए धन्यवाद !!।
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