सकारात्मक सोच भाग 14:-मोह के धागे
यह आलेख सकारात्मक सोच के बारे में है,
सकारात्मक सोच भाग 14:-मोह के धागे |
मोह के धागे
हम कहते हैं कि मृत्यु सुखद है फिर भी मन में उसका भाई होता है और वह चेतन में यह बात जमी हुई है कि मृत्यु के समय मनुष्य को मर्मर तक पीड़ाओं से गुजरना पड़ता है शास्त्रों में भी कहा गया है कि मरण समान वयना नत्थी यानी मृत्यु के समान कोई वेदना नहीं है जब आदमी किसी भी सुन कष्ट से खुजराहो तो उसके मुंह से यही निकलता है कि मौत के मुंह से निकल आया है इस भाई का दूसरा बड़ा कारण है जीवन के प्रति अनंत में सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय होता है सभी जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता सब जीवन से चिपके हुए दिखाई देते हैं वृद्ध वृद्ध और रोगी से रोगी व्यक्ति उनके मन में भी मृत्यु के समय जीवन के लिए एक तरफ छटपटाहट देखी जाती है।
महावीर जी को अनंत मोहे अनंत मोह की संज्ञा देते हैं मनोवैज्ञानिक ने जीने की लालसा को जिजीविषा कहते हैं इसे मनुष्य की बुनियादी अंदर प्रेरणाओं में गिन गिना जाता है प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एरिक वंश मनुष्य के तीन मूलभूत विश्वासों में प्रथम इसी अंतः प्रेरणा को मानते हैं अपने अस्तित्व की अमरता में विश्वास बढ़ने की अनिवार्य घड़ी को सामने देखकर भी मरने से डर ना उसी जिजीविषा की झलक है इसके पीछे एक कारण अज्ञात के प्रति आशंका भी है कि कहीं नरक में ना जाना पड़ जाए शरीर के मुंह की तरह परिवार का भी मुंह पैदा हो जाता है कि परिवार का क्या होगा वह गीता में कृष्ण कथन को भूल जाते हैं कि जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है जैसे वस्त्र जीवन हो जाने पर मनुष्य नए कपड़े धारण करता है वैसे ही शरीर के जन्म होने पर आत्मा नए शरीर को धारण करती है|
मुझे उम्मीद है कि आपको यह सकारात्मक लेख
आने के लिए धन्यवाद !!।
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